वर्षावास

एक उपन्यासकार का मस्तिष्क बहुत हाल के नहीं अपने पूर्वज उपन्यासकारों के पाठ और कथा-विवेक से बनता है। यहाँ एक सुविधा के लिए मान लीजिए कि अब तक हुए सुप्रतिष्ठित उपन्यासकारों के मार्ग विविध-विभिन्न सही, पर उनका केंद्रीय लक्ष्य एक ही रहा होगा—उपन्यास की अब तक प्रस्तुत-प्रचलित परिभाषाओं, कथाओं और संरचनाओं से बाहर चले जाना। इसमें सफलता या असफलता भविष्य का कष्ट है, लेकिन सार्वजनिक होने के बिल्कुल अंतिम क्षणों तक इस प्रयत्न और प्रक्रिया में बने रहना एक महत्त्वपूर्ण विचार-अनुभव है।

एक बड़े उपन्यासकार ने अपने वक्तव्य में कई दशक पहले यह कहा कि उपन्यास में अब सब कुछ कहा जा चुका है, उसमें अब कहने के लिए कुछ नहीं है; इसलिए उपन्यास अब बस मूलतः प्रयोग है। लेकिन कलावाद और यथार्थवाद और प्रयोगवाद के कई-कई-कई संस्करणों से परिचित होने के बाद मैंने पाया कि सारी बहस कहीं और है। उपन्यास को उपन्यास में ही बचाया जा सकता है। उपन्यास जो गपोड़ भी हैं और गल्पहीन भी, सरस भी हैं और रूखे भी, सड़ चुकी भाषा में भी हैं और न सड़ने वाली भाषा में भी…

— प्रस्तुत उपन्यास से पूर्व एक लेख में लेखक

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