सिंगल इनवर्टेड कॉमा और ब्रैकेट वाली एक रिपोर्टिंग

कल (19 जनवरी 2013) नई दिल्ली के ‘इंडिया हैबिटाट सेंटर’ में गुलज़ार के सिनेमाई गीतों पर (डॉक्टर) विनोद खेतान की लिखी किताब ‘उम्र से लंबी सड़कों पर’ का अति वरिष्ठ हिंदी कवि केदारनाथ सिंह की अध्यक्षता और ‘जनसत्ता’ के कार्यकारी संपादक ओम थानवी के सान्निध्य में लोकार्पण हुआ। एक महिला अपनी ही हमउम्र एक महिला से पूछती है, ‘‘ये संचालन क्या होता है…?’’ और इसके ठीक बाद ‘वाणी प्रकाशन’ के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी बताते हैं कि इस कार्यक्रम का संचालन सत्यानंद निरुपम करेंगे।

वे आएँगे, वे चल पड़े हैं, वे आ रहे हैं, वे रास्ते में हैं, वे पहुँच चुके हैं, वे सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं… लो सौ-सवा सौ लोगों को पैंतीस मिनट तक प्रतीक्षा कराने के बाद आख़िरकार केदार जी आ ही गए। ऐसे मौक़ों पर हमेशा उन्हें ‘बहुत’ देर हो जाती है। और इस पर गुलज़ार का यह आग्रह कि जब तक केदार जी नहीं आएँगे, वे खड़े रहेंगे और कार्यक्रम की शुरुआत नहीं होगी… नामालूम कौन-सी टूटी हुई-सी सोच है सो जारी हो गई है सारे साठ पार चाँदी बाल वालों में।

कार्यक्रम शुरू होने से पहले गुलमोहर सभागार के बाहर कहानीकार और ‘जानकीपुल’ ब्लॉग के मॉडरेटर प्रभात रंजन और सत्यानंद निरुपम से पहली बार सशरीर भेंट होती है। बड़े नगरों और ‘फ़ेसबुक’ के दौर में ऐसी छोटी-सी मुलाक़ातें भी बहुत बेहतर लगती हैं। प्रेम भारद्वाज, यशवंत व्यास, प्रियदर्शन, अशोक भौमिक, फ़ज़ल इमाम मल्लिक और चंदेक नामों और कुछ स्थायी ‘संगोष्ठीख़ोरों’ को छोड़… बाक़ी यह कोई दूसरी ही दुनिया थी जो मुझे बार-बार ललित कार्तिकेय का ललित लेख ‘ये देसी अमेरिकी’ और हरे प्रकाश उपाध्याय की कविता ‘महान आत्माएँ’ की याद में ले जा रही थी।

केदार जी अपना स्थान ग्रहण करने के लिए आगे बढ़े, गुलज़ार ने उनके चरण स्पर्श किए (पहली बार गुलज़ार ने अपने ‘लेखन’ से इतर कोई ठीक काम किया।) गुलज़ार ने वाणी के लिए क्या-क्या लिखा है और गुलज़ार सिने गीतकार होने के साथ-साथ सूफ़ियाना शाइर भी हैं, जैसी ‘अनसुनी’ बातें अपने मुँह से सुनाने के बाद अरुण माहेश्वरी ने मंचासीन मेहमानों को पुष्प गुच्छ के साथ पुस्तकें देने की ‘हिरावल’ परंपरा भी शुरू की।

इसके बाद विनोद खेतान ने ‘गुलज़ार और चाँद’ के ‘अनूठे’ रिश्ते के बारे में समझाते हुए बताया कि कैसे वह गुलज़ार की ‘क़ैद’ में आ गए। उन्होंने अपनी किताब को ‘क़तरा’ और गुलज़ार को ‘दरिया’ कहा (बक़ौल ग़ालिब : इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना…) अंतत: कुछ एक नाम गिनाने, बहुत सारे ‘इमोशनल ड्रामे’ और चाँद-चाँद कहकर चाँद (दिमाग़) चाटने के बाद विनोद खेतान ने अपनी बात ख़त्म की और उन श्रोताओं ने जिनके नाम उन्होंने नहीं गिनवाए थे, चैन की साँस ली।

इसके बाद सत्यानंद निरुपम ने विनोद खेतान को ‘दिल का मारा’ बताते हुए चुटकी ली और समय का ‘मूल्य’ समझते हुए लोकार्पण शुरू करवाया। ‘स्टिल ज़रा एक तरफ़ होइए’—वीडियोग्राफर कहते हैं और ‘प्रोग्राम की सक्सेस इसी में है कि हर हॉल में हर हाल में लोग खड़े रहें’ श्रोता जैसा दीखता एक आदमी कहता है। इस बेचारे को बाहर चाय भी नहीं मिली थी… (त्च त्च त्च)।

इसके बाद ओम थानवी ने केदारनाथ सिंह और गुलज़ार की ‘महानता’ का राग अलापते हुए इस अवसर पर बोलने के लिए ख़ुद से ज़्यादा उपयुक्त विजयमोहन सिंह और विष्णु खरे को बताया। मगर फिर भी उन्होंने अपने मनोरंजक ‘सिने+गुलजार’ संस्मरण सुनाए। ‘पाँव के नीचे तीतर आया और शिकारी हो गए’ कहकर ओम जी ने श्रोताओं की तालियाँ नहीं हँसियाँ बटोरीं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि ‘जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल’ के दौरान एक बार उनकी पत्नी गुलज़ार की कार लेकर भाग गई थीं। यह कहकर ओम जी ने श्रोताओं की तालियाँ और हँसियाँ दोनों बटोरीं। लेकिन इस सबसे अधिक तो हास्यापद यह रहा कि उन्होंने लोकार्पित किताब को फ़ुटपाथों पर बिकने वाली, पीली-पीली, छोटी-छोटी, प्रूफ़ की असंख्य ग़लतियों वाली सदाबहार फ़िल्मी गीत पुस्तिकाओं से जोड़ दिया।

अब बोलने की बारी सुकृता पॉल कुमार की थी। सुकृता अँग्रेज़ी की ‘बड़ी’ कवयित्री हैं। उन्होंने आते ही कहा कि क्या बोलूँ, जो सुनना चाहते हैं, वही बोल देती हूँ (यह सुनने के बाद ‘हवामहल’ और ज़ोहराबाई अंबालेवाली याद आ गईं)। यह बोलने के बाद उन्होंने कहा कि उम्र से लंबी सड़कों पर जैसी ‘बुक्स’ और फ़िल्मी गीतकारों पर भी आनी चाहिए, हालाँकि बाद में उन्होंने यह भी जोड़ा कि अँग्रेज़ी बोलते-बोलते उनकी ‘ज़ुबान’ ख़राब हो गई है।

अध्यक्षीय बयान में केदार जी ने सदा की तरह शानदार बोलते हुए गुलज़ार के फ़िल्मी गीतों को लोकगीतों की ‘परंपरा’ से जोड़ा। उन्होंने शैलेंद्र और साहिर के साथ ‘हमारे बीच मौजूद’ गुलज़ार को जोड़ते हुए उन्हें हिंदी-उर्दू के बीच की दीवार को ढहाने वाला शाइर-गीतकार बताया। उन्होंने यह भी कहा कि यह भूलने का समय है, ऐसे में कोई गीत आपकी स्मृति में बना रह जाए; मैं इस बात को गीत और उसके सृजक की बड़ी भूमिका मानता हूँ, गुलज़ार के गीत इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। ‘जब एक क़ज़ा से गुज़रो तो एक और क़ज़ा मिल जाती है…’ गुलज़ार का यह गीत सुनाकर केदार जी ने अपनी बात ख़त्म की।

इसके बाद गुलज़ार ने माना किइतने बड़े ‘उस्ताद’ के बाद बोलना गुस्ताख़ी है। लेकिन बोलना ही था इसलिए वह भी बोले और लेखक से पहले प्रकाशक का ‘शुक्रिया’ अदा किया। उन्होंने भी इस सभागार में उन्हें सुनने आए अपने ‘हमजोलियों’ का नाम ले-लेकर ‘शुक्रिया’ अदा किया। फ़िल्मी गीत लेखन की प्रक्रिया और परेशानियाँ बताने के बाद जब उन्होंने अपनी नज़्में सुनानी शुरू कीं, तो एक श्रोता ‘पेज नंबर’ पूछने लगा, ये वही श्रोता था जो केदार जी के बोलने के दौरान भी यह ग़लती कर चुका था। इस पर गुलज़ार ने कहा कि महाशय अपनी डायरी का पेज नंबर तो मैं आपको नहीं बताऊँगा। नज़्में सुनने के बाद कई श्रोता ‘मोर…मोर…’ चिल्लाने लगे यह भूलकर कि ‘इंडिया हैबिटाट सेंटर’ में ‘मोर’ कहाँ!! लेकिन गुलज़ार ने इस ‘मोर’ को ‘वंस मोर’ समझकर अपनी एक और बेहतरीन नज़्म सुनाई। बाद इसके संचालक ने सबका ‘पक्ष’ रखते हुए केदार जी से एक ‘कविता’ सुनाने की गुज़ारिश की। इस पर केदार जी बोले कि आज गुलज़ार का ‘दिन’ है और मैं उनकी ‘तारीफ़’ करने आया था, जो कर चुका हूँ। लेकिन जब गाड़ी बहुत ‘उलार’ पर आ गई तब केदार बाबू ने अपनी विश्वविख्यात ‘बनारस’ कविता सुनाई और गुलज़ार का ‘दिन’ और ‘दिल’ दोनों ही ख़राब करते हुए महफ़िल लूट ली… ‘क्या तुमने कभी देखा है ख़ाली कटोरों में वसंत का उतरना…’ यहाँ मौजूद ‘भीड़’ से यह एक वाजिब सवाल था जो ‘बनारस’ की एक कविता-पंक्ति कर रही थी।

पाखी’ (20 जनवरी 2013) पर पूर्व-प्रकाशित।