नये शेखर की जीवनी
थोड़े से लोगों को कुछ रचने का कीड़ा काटता है। वे ज़िंदगी और ज़माने की परछाइयों पर कभी मुग्ध, कभी विस्मित, कभी खिन्न भटकने लगते हैं। कभी यह भटकन उन्हें बेनियाज़ कर अमूर्त की धुंध में ले जाती है, जहाँ आदमी फ़लसफ़े का फीका पापड़ हो जाता है। यह पहले से बने-बनाए सर्वस्वीकृत बोर ढाँचों में काँखते हुए ख़ुद को किसी तरह अँटा ले जाते हुए फ़र्ज़ी मुस्कानों में इतराने के बजाय ख़ुद को बेरहमी से पहचानने, अपने को व्यक्त कर पाने लायक़ बानी और जीवन का कोई एकदम अपना और इसीलिए विशिष्ट मतलब पाने की जोखिम भरी यात्रा है। इस रास्ते पर क़दमों के नहीं हिचक, लड़खड़ाहट, उन्माद और आदमी की देह घसीटे जाने के निशान पाए जाते हैं। अगर यह कानपुर, प्रेमिका, बेरोज़गारी, सत्ता, दिल्ली, गोधरा, फिल्म, रोटी, समुद्र, चाँद जैसे पहचाने जा सकने वाले मक़ामों को छूकर गुज़रे तो ग़नीमत जानिए वरना चिथड़ों में लिपटा आदमी एक दिन अपने भीतर उलझ कर स्वंयभू ट्रैफ़िक कंट्रोल करने लगता है, सड़क किनारे उड़ती पन्नियाँ और काग़ज़ बटोरता है, अपनी पीड़ा में अंतरिक्ष से शिकायत करता है। बहुतेरे ऐसे भी होते हैं, जिन्हें कुछ नहीं होता। वे चुपचाप वापस लौट आते हैं और ख़ुद को पुराने खाँचों में ठूँसकर मार डालने तक कभी माफ़ नहीं कर पाते। ‘नये शेखर की जीवनी’ में दबाव, वेग, जटिलता और जन्नत की हक़ीक़त जान लेने की मार्मिकता के कारण जटिल जीवन का कच्चा रस उछल आया है। इस ज़माने में जहाँ विद्रोह को भी मेकअप, कैमरे और प्रायोजक की दरकार है, अगर पुराने शेखर को जीने वाले ‘अज्ञेय’ की इस नये शेखर से मुलाक़ात होती तो जान पाते कि वह क्यों कहता है—‘शेखर के हाथों में चीज़ें कम हैं, पैरों में ज़्यादा।’
— अनिल यादव
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