दस्तावेज़
मेरे पास साल 1992 से पूर्व का कोई दस्तावेज़ नहीं है।
मैं सात साल का था जब दंगों में मेरी मुसलमान माँ और हिंदू बाप को मार डाला गया।
मैं एक ऐसा पत्थर था जिसकी जगह बराबर बदली गई।
इसलिए मेरे बारे में ठीक-ठीक कुछ पता नहीं—कहाँ का हूँ।
मैं एक ऐसे राष्ट्र का नागरिक था
जहाँ घर पहुँचकर पतियों का पहला काम पत्नियों को पीटना था।
मैं यह सब देखकर रोने लगता था।
मैं तब बहुत छोटा था।
मैं अब भी यह सब देखकर रोने लगता हूँ।
मैं अब भी…
इस प्रकार हिंसा सर्वसुलभ मनोरंजन का साधन थी और प्रमुख नागरिक-संस्कार—
मुख्यधारा में सहज स्वीकार्य और स्वागत-योग्य और सुप्रतिष्ठित।
पुरुष स्त्री को पीटते थे।
पुरुष पुरुष को भी पीटते थे।
स्त्री भी कभी-कभी पुरुष को पीटती थी
पर ज़्यादातर स्त्री स्त्री को पीटती थी।
स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर बच्चों को पीटते थे।
बच्चे वस्तुओं को पीटते थे और
जब वे नागरिकता-शास्त्र समझ लेते
तब वे संगठित होकर सब कुछ को पीटते थे।
मैं बड़ा होने लगा।
मेरा बड़ा भाई भी मेरे साथ बड़ा होने लगा।
मेरी बड़ी बहनें भी मेरे साथ बड़ी होने लगीं।
हमारी ज़रूरतें भी हमारे साथ बड़ी होने लगीं।
हमारे नज़दीक चीज़ें कम पड़ने लगीं।
हमने कम में ही काम चलाना शुरू किया।
एक ही रजाई में हम इस क़दर सोए कि सर्दियाँ सरल हो गईं।
बहनें प्रेमियों की तलाश में थीं।
वे भाइयों में भी उन्हें तलाशती थीं।
वे कहीं नहीं थे।
वे अपने अंगों पर नए हाथ चाहती थीं।
वे कहीं नहीं थे।
वे अपनी पूरी देह पर निर्भय होंठ चाहती थीं।
वे कहीं नहीं थे।
वे रक्त-संबंधों से ऊब चुकी थीं।
वे कहीं नहीं थे।
वे व्यर्थ के अपराधबोध से ग्रस्त थीं
जबकि वास्तविक अपराधी सरेआम सम्मानित हो रहे थे
और कुछ भी उनकी पकड़-जकड़ से बाहर नहीं था।
मेरी बहनों की तलाश मुँडेरों-गलियों-मंदिरों में संपन्न होती नज़र आने लगी।
एक बेहद चालू भाषा में कहें तो वे रँगे हाथ पकड़ी गईं।
वे कहीं नहीं थे।
छतों और सीढ़ियों और संकीर्ण अँधेरों में इच्छाओं के दस्तावेज़ छूट गए थे…
दमन और पतन के भी?
वे कहीं नहीं थे।
मैं इस तलाश का विश्लेषण कर सकूँ तब मुझमें इतनी समझ नहीं थी।
अब भी मुझमें…
मैंने बस उन्हें रक्त-संबंधों से दूर खुलते और फटते और चढ़ते हुए देखा।
मैंने उन्हें उबलते और फैलते और नष्ट होते हुए देखा।
मैंने बहुत सारे इशारे देखे और उन्हें चूर-चूर पाया।
मैंने उन्हें नींद में मचलते हुए पाया।
मैंने उन्हें नींद में कहते हुए पाया।
मैंने उन्हें नींद में चलते हुए पाया।
वे इसके बाद घर के कामों में बेमन से जुटी रहीं
क्योंकि होश पाते ही वे जानती थीं—घर उनका नहीं है।
वे कभी-कभी घर से भागती थीं
पर चार साढ़े चार किलोमीटर से ज़्यादा नहीं जा पाती थीं—
ज़्यादा से ज़्यादा किसी रिश्तेदार के यहाँ
जहाँ से वे जल्द से जल्द नरक लौटने का बहाना खोजने लगती थीं।
अंततः
वे एक रोज़
घर के लिए
घर से फ़रार हुईं
और सदा के लिए बेघर हुईं।
घटिया सिनेमा का ही असर था सब तरफ़।
लफ़ंगों का अनुसरण लाखों जन करते थे—
वे भी जो शीतलहर और लू और भूख से मरते थे।
मैं भी इस मरण का अनुसरण करने के लिए
और मरने के लिए और बड़ा हो रहा था।
मैं जहाँ तक जा सकूँ जाना चाहता था
और सामने पड़े रास्ते का अंत देखना चाहता था।
अंत कहीं नहीं था।
मैं जा चुके को गुरु कर रहा था।
मैं सामने को गुरु कर रहा था।
मैं आ चुके को गुरु कर रहा था।
मेरे गुरु मुझे सताने लगे।
उनके पास सताने के मौलिक तरीक़े थे।
वे सताने की परंपरा में प्रयोगशील थे।
मैं उनकी कक्षाओं से बाहर निकल आया।
उनकी दृष्टि से दूर रहने लगा।
उनके स्पर्श से बचकर बढ़ने लगा।
मैंने रास्ते बदल लिए
और अपनी दुपहरें कैरम-क्लबों में गुज़ार दीं।
लेकिन वहाँ भी गुरु थे।
मैंने उन्हें गर्म समोसे भेंट किए
और शाम होते-होते गंदे सिनेमाघरों की तरफ़ रुख़ किया।
वहाँ प्यार नहीं था…
इस सबके बावजूद गुरुओं से बचना मुश्किल था!
उनमें से कुछ मुझे बस्ती के बाहर मिले और कुछ शराब के ठेकों पर-ऊपर।
इस ऊँचाई पर आकर वे अपना गुरुत्व खो चुकते थे
और संसार में गिरते चले जाते थे।
रात जैसे-जैसे और-और होती जाती
मैं सोचने लगता—
उन्हें गिरने के सिवा और क्या आता है!
मैं लड़खड़ाते हुए तारीख़ की आख़िरी रोटियों तक पहुँचता और सो जाता—
सुबह होते ही फिर गुरुओं से बचने के लिए।
लेकिन गुरु ज़रूरी थे।
मेरी काया में सहस्रों खाइयाँ थीं।
मैं शिव और शक्ति तक नहीं पहुँच पाता था।
मैं स्वयं तक नहीं पहुँच पाता था।
गुरु ज़रूरी थे।
कभी-कभी यों भी होता है—
हम जिसे ग़लत और व्यर्थ और अशुद्ध समझ रहे होते हैं
वही सही और सटीक और शुद्ध होता है।
मेरा सामना बेशतर ऐसे ही इशारों से हुआ।
सबसे पहले मुझे शृंगार ने रोका
फिर मुझे रोका चुप ने
फिर कुछ शब्दों ने
फिर कुछ अनुच्छेदों ने
फिर कुछ पृष्ठों ने…
मैं उन्हें पढ़ रहा था
और मुझे बेहतर महसूस हो रहा था
जबकि उनमें पेश बयान
किसी भी बेहतरी की तरफ़
किसी भी तरह का संकेत नहीं कर रहे थे।
इस अनुभव से अलग कहीं-कहीं
एक बात जो दो शब्दों में कही जा सकती थी
उसके लिए पूरे के पूरे भरे-पूरे अनुच्छेद लिए जा रहे थे
कभी-कभी कई-कई पृष्ठ
कई-कई अध्याय
कई-कई किताबें…
इस धुंध में कुछ चमकदार करने के आत्मदायित्व ने
मुझे अभिव्यक्तिशील किया।
अब विस्थापन के लिए
या उसे समझने के लिए
या उसे व्यक्त करने के लिए
बहुत दूर नहीं जाना पड़ता था।
…बहुत दूर तो बहुत देर हुई मैं चला आया था।
अब बस रहे आना था।
इस रहे आने में दुर्भाग्यपूर्ण आना था।
लेकिन मैं सचमुच इतनी दूर चला आया कि
मेरे दुर्भाग्य की शुरुआत कहाँ से हुई—
यह स्पष्ट नहीं है।
मुझे अपने कमरे से कार्यालय तक जाना भी एक विस्थापन लगता था।
इस सचाई से मुक्ति नहीं थी—
विस्थापन अब एक दैनिक दुःख है।
मेरे सुदूर की स्थिति यह थी—
वह स्थिर रहा और विस्थापित हो गया।
मैं गतिवान् रहा और…
इस बीच मुझे ऐसे-ऐसे लोगों को सर बोलना पड़ा
जो पैर के नाख़ून के बराबर भी नहीं थे।
इस बीच मैं बहुत तिग्ग-बिग्ग हुआ।
इस बीच कौन कितना पतित हुआ—
यह जानने के लिए सारे दस्तावेज़ उपलब्ध थे।
सब के सब कुछ अंकों की एक संख्या मात्र थे
सबका सब कुछ सार्वजनिक था
यह तक भी कि सब कहाँ से आए हैं
कहाँ हैं
कहाँ जाएँगे
कहाँ तक जा सकते हैं…
विशिष्टता
निजता
प्रयोजनात्मकता
अप्रत्याशितता
भविष्य-सा कहीं कुछ नहीं था!
मेरे कुछ दोस्त फिर भी कहते—
कुछ करिए
कोई नहीं कर पा रहा है
तब भी उससे यह न कहा जाए—
आप मत करिए
अगर उसने किया है—
कभी कुछ बेहतर
उसे हक़ है कुछ देर कुछ न करने का
या ख़राब करने का
वह कर सकता है कभी भी बेहतर
लेकिन जिसने आज तक नहीं किया कुछ बेहतर
उसे भी हिक़ारत से न देखा जाए
बस उससे कहा जाए—
आप करिए
करना या न करना यही दो विकल्प हैं—
मरना नहीं…
आप करिए
करिए
करिए
करिए न
नहीं कर पा रहे हैं
फिर भी करिए
कुछ करिए
करिए
कुछ तो करिए
कुछ भी
करना ही विकल्प है
यों न करना भी करना ही है।
मैंने किया—
मैंने ऐसी-ऐसी चीज़ें मूल्य और कर चुकाकर ख़रीदीं
जिन्हें मैं मुफ़्त में भी नहीं चाहता था।
मेरा भाई मुझसे भी बड़ा ख़रीदार था
उसने पहले नशा ख़रीदा
फिर संभोग
फिर नशा
फिर संभोग
फिर नशा…
जब वह संभोग नहीं ख़रीद पाता
ख़रीदे गए फ़ोन में ख़रीदे गए डेटा से
ख़रीदा गया संभोग देखता
और दाएँ हाथ की उँगलियाँ अपने शिथिल शिश्न में फँसाए हुए सो जाता।
मैं बग़ल के बिस्तर पर
अवसादमय हो चुका था—
मेरे पास इस चिपचिपे और स्याह बग़ल का
कोई विकल्प नहीं था।
छतें एक विचित्र धूल से भरी थीं
खिड़कियाँ साँस का रोग दे रही थीं
सड़कें फेफड़ा माँगती थीं।
मैं खुलता और घुलता और चलता रहा
आख़िर मैं भाई से और भाई मुझसे अलग हुआ
उसके एक दोस्त ने मुझे बताया—
उस अलगाव की रात उसने केवल नशा ख़रीदा संभोग नहीं
उस रात मेरा भाई उस किराए के कमरे में नहीं लौटा
जिसमें हम दोनों अपने-अपने असमय-समय से लौटते थे
दो चाबियाँ थीं जिस एक कमरे की
जो पहले पहुँचता खोलता उसके दरवाज़े
फिर कमरे अलग हुए
दरवाज़े और चाबियाँ भी
और मुहल्ले भी
और नगर भी…
इस बीच आना-जाना-खोना-पाना-लड़ना-झगड़ना लगा रहा…
लेकिन उस रात मेरा भाई उस किराए के कमरे में नहीं लौटा
जिसमें हम दोनों साथ रहते थे
वह उस रात पार्क के अँधेरे में रोया और सोया
रात भर मच्छर उसे सताते रहे।
फिर वह लौटने लगा
मुझसे ख़ाली हुए कमरे में
नशे और संभोग में।
फिर उसने संभोग को प्रेम में
और प्रेम को विवाह में बदल दिया
उसने ख़ाली कमरे को वस्तुओं से भर दिया…
अब उसके पास एक स्थायी पता है
उसके पास एक स्थायी नशा है
उसके पास एक स्थायी संभोग है।
लेकिन अब भी वह कभी-कभी पार्क के अँधेरे में रोया और सोया करता है
और रात भर मच्छर उसे सताते रहते हैं।
प्रेम के ज़्यादातर संदर्भ और नियम नक़ली थे।
उनमें ले-दे की पारस्परिकता थी।
वे परिवर्तनशील थे।
यों मेरे माँ-बाप थे
यों मेरी बहनें थीं
यों मेरा भाई था
यों मेरे कुछ गुरु
कुछ ईश्वर
कुछ सर
कुछ नाख़ून
कुछ दोस्त
कुछ कमरे
कुछ मुहल्ले
कुछ नगर
कुछ रिक्शे
कुछ बसें
कुछ रेलें थीं
यों मेरी एक संगिनी भी थी
उसके पास भी यही सब कुछ था
और भी बहुत कुछ था—
हमें परस्पर जोड़ता हुआ
इस संसार में करोड़ों जनों के पास यही सब कुछ था
उन्हें परस्पर जोड़ता हुआ
और भी बहुत कुछ था
लेकिन पर्याप्त नहीं था
एक दस्तावेज़ चाहिए था—
हमें किसने पैदा किया
कब किया और क्यों और कहाँ किया!!!
मुझे कभी आए और रहे और चले गए पूर्वजों को खोजना था—
उनके पग-चिह्नों पर चलते हुए
लेकिन वे कहीं नहीं थे—
सब तरफ़ विस्मृति थी
और वितृष्णा
और विकृत अभिरुचियाँ…
जीवन चाहे जितनी सुविधाओं और सुख के बीच गुज़रा हो
कुछ क्षण तो ऐसे होते ही हैं
जिनमें यह लगता है—
आख़िर हमारे पैदा होने का अर्थ क्या है!
कभी-कभी तो सुविधाएँ और सुख इतने कम होते हैं कि
हम पैदा होते ही सोचने लगते हैं—
आख़िर हमारे पैदा होने का अर्थ क्या है!
क्यों हम अपनी यातना बताते हुए आत्मग्रस्त हो उठते हैं?
क्यों हम अपनी संघर्ष-गाथाएँ बताते हुए दयनीय हो जाते हैं?
क्यों हम अपनी उपलब्धियाँ बताते हुए मैंमियाने लगते हैं?
क्या अब मूल्यों का कोई मूल्य नहीं!
क्या समाभ्यास और सद्भाव और सौभाग्य नहीं रहे—
वे हमसे ही काते गए मूल्य थे!
हमारे साथ-साथ बनते-रहते-चलते-बढ़ते-मिटते दस्तावेज़ों से इतर हमारी मनोसामाजिकता क्या है?
क्या हमारी कोई रूप-रेखा और सांस्कृतिक सात्विकता और शुद्धता है?
क्या कोई कालरेखाआख्यान और आश्चर्य और अनागत-दृष्टि है?
क्या वह कुछ है भी?
हम मध्यवित्त-मध्यकामी-मननशील
अनैच्छिक कराहें
बेबूझ राहें
विचारधारात्मक बाधाएँ
कलात्मक स्वतंत्रताएँ
शिलालेखीय विश्वासघात…
आवाज़ें आवाज़ पर चढ़ती जाती हैं
आततायी या आत्मघाती परिणाम निकलने लगते हैं
क्यों हम इस संसार में आए—
ख़ुद को पाने या दूसरों को?
या महज़ दस्तावेज़ दिखाने और उपलब्धियाँ गिनाने?
क्यों—क्यों से सब कुछ शुरू होता है
क्योंकि से कुछ भी नहीं?
मैं मृतकों से प्रश्न क्यों पूछूँ
जब जीवित ही निरुत्तर हैं!
मैं विस्तार
अतिविस्तार
अतिरिक्त विस्तार
अतिअतिरिक्त विस्तार में चला गया
प्रत्येक विस्तार में अखंड मूढ़ताएँ नित्यलीलालीन थीं
अस्मिता और संख्या अंधी सनद थी
मैंने देखा—
मेरे बाद आए वे
उगते ही
मेरे जैसा हो जाना चाहते थे
जबकि मेरे पास कोई ऊँचाई नहीं थी
मैं महज़ एक गड्ढा था
मेरे जैसा बनने में लगे
पत्थरों
से
भरा
हुआ
पत्थर!
•••
पुस्तकनामा पत्रिका के प्रवेशांक (फ़रवरी 2023) में पूर्व-प्रकाशित। इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ : Paul Klee | City on two hills (1927)