एक ख़ुशअदब ख़ुशहाल जीवन

प्रख्यात लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह नर्वस नाइंटी के शिकार हो गए।—इस वाक्य से यहाँ प्रस्तुत स्मृति-शेष की शुरुआत करना कुछ नामाक़ूल और विनोदपूर्ण लग सकता है, लेकिन जब यह खुशवंत सिंह जैसे व्यक्तित्व के प्रसंग में हो तब इसे उनके ही जीवन और लेखन से उठाए गए तर्कों के आधार पर जायज़ भी ठहराया जा सकता है। खुशवंत सिंह अपने पाठकों के बीच ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, ‘ब्लैक जैस्मीन’, ‘दिल्ली: ए नॉवेल’, ‘सेक्स, स्कॉच एंड स्कॉलरशिप’, ‘वी इंडियंस’, ‘वीमेन एंड मेन इन माय लाइफ़’, ‘ट्रूथ, लव एंड लिटिल मैलिस’ और ‘दि सनसेट क्लब’ जैसी साहित्यिक कृतियों के साथ-साथ अपनी ज़िंदादिली, हास्य- प्रतिभा, विनोद-वृत्ति, व्यंग्यात्मक-क्षमता, दोटूकपन और बहुचर्चित जुमलों-जोक्स के लिए भी जाने जाते रहे और जाने जाते रहेंगे।

मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने ख़तों में फ़रमाया है कि ‘आदमी ख़ुशअदब और ख़ुशहाल एक साथ नहीं हो सकता।’ लेकिन खुशवंत सिंह उन चंद शख़्सियतों में से एक रहे जिन्होंने ग़ालिब को इस मायने में ग़लत साबित किया। अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि खुशवंत ख़ुशअदब और ख़ुशहाल एक साथ थे।

ग़ुलाम भारत के सरगोधा ज़िले में (जो अब पाकिस्तान में है) 2 फ़रवरी 1915 को जन्मे ख़ुशवंत सिंह भले ही 20 मार्च 2014 को चली आई क़ज़ा (मौत) की वजह से अपने जीवन की शतकीय पारी से चूक गए हों, लेकिन उनके बारे में यह कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि उन्होंने एक शानदार जीवन जिया, उन्होंने वह किया जिसे मृत्यु जैसे अकाट्य सत्य के बावजूद ज़िंदगी को जीतना कहते हैं। फ़ैज़ के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि वह जहाँ से भी गुज़रे कामयाब आए।

वह एक महानतम शख़्सियत थे या उनके निधन से एक युग का अंत हो गया है या उनकी कमी एक समय तक भारतीय, विश्व और अँग्रेज़ी साहित्य को महसूस होगी… ऐसे रूढ़ वाक्यों को जो लगभग खुशवंत सिंह जैसी शख़्सियतों के अवसान पर स्मृति-शेष लिखते हुए प्रायः प्रयोग किए जाते हैं, खुशवंत सिंह के संदर्भ में प्रयोग करना माक़ूल नहीं होगा। खुशवंत ऐसी भाषाई औपचारिकताओं और कार्यक्रमों को ज़रूरी होने पर भी हास्यास्पद क़रार देते।

वर्ष 2005 में प्रकाशित अपनी एक किताब (डेथ एट माय डोरस्टेप) में ही खुशवंत मृत्यु की आहटें सुन रहे थे। वह धीरे-धीरे जीवन को अपने से छूटता हुआ महसूस कर रहे थे। गए दस सालों में मौत उस महबूबा की तरह उनकी ओर बढ़ रही थी जिसके मिलन की व्यथा को टाला नहीं जा सकता। लेकिन इस इंतिज़ार को मुश्किल और तकलीफ़देह बनाकर ख़ुद और दूसरों के लिए समस्या का सबब बन जाने वालों में खुशवंत नहीं थे। अपनी आख़िरी किताब ‘खुशवंतनामा’ के आख़िरी सफ़हों में अपना ही स्मृति-लेख लिखते हुए खुशवंत फ़रमाते हैं :

‘‘यहाँ वह लेटा है जिसने इंसान या भगवान किसी को भी नहीं छोड़ा। उसके ऊपर आँसू बर्बाद न करें, वह एक मुश्किल इंसान था जो अश्लील लिखने को सबसे बड़ा आनंद मानता था। भगवान का शुक्र है कि वह मर गया, वह बंदूक़ का बेटा।’’

उर्दू शाइरी को अपने दिल और दिमाग़ के क़रीब मानने वाले खुशवंत ने कभी ग़ालिब की तरह यह नहीं फ़रमाया कि ‘हो चुकीं ग़ालिब बलाएँ सब तमाम/ एक मर्ग-ए-नागहानी और है…’ ऐसा ग़ालिबन इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि खुशवंत शाइर नहीं थे। इस दुनिया में शाइर कुछ अपने इख़्तियार से और कुछ इस दुनिया की वजह से कम जी पाते हैं, उन्हें खुशवंत सिंह की तरह लंबी उम्र नहीं मिलती।

इस रुदन से अलग स्मृति-शेष से संबंधित औपचारिकताओं की ओर लौटें तो यहाँ यह जोड़ना चाहिए कि बहुतों ने दिल्ली के बारे में बहुत कुछ खुशवंत सिंह के उपन्यास ‘दिल्ली’ को पढ़कर ही जाना। उन्हीं खुशवंत सिंह ने जीवन को लगभग आख़िरी बूँद तक निचोड़ लेने के बाद दिल्ली में ही आख़िरी साँस ली। आख़िरी समय में उनके पुत्र राहुल सिंह और पुत्री मीना उनके साथ थे। एक पत्रकार, स्तंभकार और एक बेबाक लेखक के रूप में उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली और अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पुस्कारों से उन्हें सम्मानित भी किया गया। उन्हें पद्मश्री, पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नवाज़ा गया। एक महत्त्वपूर्ण उत्तर उपनिवेशवादी लेखक के तौर पर अपनी पहचान रखने वाले खुशवंत सिंह को अपने धर्मनिरपेक्ष दिमाग़ और शाइरी के गहरे जुनून के लिए जाना जाता रहा। विभिन्न राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों के लिए एक नियमित योगदानकर्ता खुशवंत सिंह को वर्ष 1956 में लिखी ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ से अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में पूरी की और उसके बाद, लंदन, ब्रिटेन में किंग्स कॉलेज में क़ानून में आगे की पढ़ाई शुरू की। सर शोभा सिंह, खुशवंत सिंह के पिता, लुटियन की दिल्ली में एक प्रतिष्ठित बिल्डर का काम करते थे। खुशवंत सिंह ने भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘योजना’ का भी संपादन किया। ‘नेशनल हेराल्ड’ और ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के अलावा उन्होंने ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ का भी संपादन किया। 1980-1986 तक भारतीय संसद में वह राज्यसभा सदस्य भी रहे।

वर्ष 2000 में बीबीसी संवाददाता क़ुर्बान अली को दिए गए एक ख़ास साक्षात्कार में खुशवंत सिंह ने इस सवाल पर कि ‘‘खुशवंत जी, आप जीवन के 85-86 बसंत देख चुके हैं; क्या आपको लगता है कि ज़िंदगी में आपकी ज़्यादातर ख़्वाहिशें पूरी हो गई हैं या अभी कुछ बाक़ी रह गई हैं?’’ खुशवंत सिंह ने जवाब दिया था :

‘‘तमन्नाएँ तो बहुत रहती हैं दिल में, वे कहाँ ख़त्म होती हैं। जिस्म से तो बूढ़ा हूँ, लेकिन आँख तो अब भी बदमाश है। दिल अब भी जवान है। दिल में ख़्वाहिशें तो रहती हैं, आख़िरी दम तक रहेंगी। पूरी नहीं कर पाऊँगा, यह भी मुझे मालूम है। मेरे अंदर किसी चीज़ को छुपाने की हिम्मत नहीं है। शराब पीता हूँ तो खुल्लम-खुल्ला पीता हूँ, कहता हूँ कि मैं पीता हूँ। मुल्हिद और नास्तिक हूँ, छिपाया नहीं कभी। मैं कहता हूँ कि मेरा कोई दीन-ईमान-धरम-वरम कुछ नहीं है। मुझे यक़ीन नहीं है इन चीज़ों में, तो लोग उसको डिसमिस कर देते हैं कि ये क्या बकता है। मैंने कई दफ़ा कहा है कि मैं किसी मज़हब में यक़ीन नहीं करता फिर भी मुझे निशाने-ख़ालसा दे दिया। गुरुनानक यूनिवर्सिटी ने मुझे ऑनररी डॉक्टरेट भी दे दिया तो मैंने क़बूल कर ली। मैंने कोई समझौता नहीं किया कि मुझमें किसी मज़हब का एहसास वापस आ गया है। मैंने खुल्लम-खुल्ला कहा कि मुझे इसमें कोई यक़ीन नहीं है, क्योंकि मैं नास्तिक हूँ।’’

खुशवंत सिंह उम्र के किसी भी पड़ाव में रहे हों, उन्होंने कभी अपने लिए तय किए गए अनुशासनों और मानकों को नहीं त्यागा। वह सुबह चार बजे से उठकर काम करना शुरू कर देते थे। धार्मिक कर्मकांडों में उन्हें यक़ीन नहीं था। यही विश्वास, अनुशासन और अध्यवसाय था जो उन्होंने लगभग अपनी उम्र जितनी ही किताबें लिखीं और देश-दुनिया में बेशुमार शोहरत पाई और मक़बूल-ओ-मशहूर हुए। उन्होंने मिलने-जुलने में एक फ़ासला रखा। जीवन और उससे जुड़ी माँगों के मामले में उन्होंने अपने दिल की ज़्यादा सुनी या दिमाग़ की यह कहा नहीं जा सकता, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्होंने कभी ‘लोग क्या कहेंगे…’ इसकी परवाह नहीं की।

‘खुशवंतनामा’ की शुरुआत में उन्होंने शेक्सपीयर के नाटक ‘हैमलेट’ के अंक-1 के तीसरे दृश्य से इन पंक्तियों को उद्धृत किया है :

‘‘सबसे ऊपर, अपने आपके लिए सच्चे बनो
और इसके बाद ज़ह जरूर हो
जैसे कि रात के बाद दिन होता है
कि किसी के लिए झूठे मत बनो।’’

ये पंक्तियाँ खुशवंत सिंह को बेहद प्रिय रहीं। इनका ज़िक्र गए दिनों में वह उन साक्षात्कारों में भी करते आए जिनमें अंत में उनसे अपने जीवन का संदेश जैसा कुछ छोड़ने के लिए कहा जाता था। खुशवंत सिंह में भी तमाम मानवीय कमज़ोरियाँ थीं, लेकिन उनके प्रकटीकरण के लिए यहाँ न अवकाश है, न औचित्य। तब तो और भी नहीं जब खुद खुशवंत बेहद साफ़गोई से इनके बारे में अपने लेखन में बयाँ कर गए हों।

‘जानकीपुल’ (21 मार्च 2014) पर पूर्व-प्रकाशित।