‘ऋतु’ संहार
एक निश्चित आयु का कवि एक अनिश्चित समय के बीच।
— ज़्बिग्निएव हेर्बेर्त
मैं कुछ समय तक अप्रकाशित तथ्यों में रहना चाहता था। शोक-सभाओं और व्यस्त दिनचर्याओं से बहुत दूर—एक विचार को विस्तार देते हुए। उन जगहों और वर्षों के विषय में सोचते हुए, जहाँ मैं और वह अक्सर मिला करते थे। वह बहुत जल्दी-जल्दी बोलता था और मैं बहुत जल्दी-जल्दी चलता था। आरंभ में उसकी बातें मुझे समझ में नहीं आती थीं। वे हाँफते हुए बाहर आती थीं और एक बेहद तेज़ रफ़्तार उन्हें कुचलकर रख देती थी। सारी ख़ुदाई एक अजीब-सी शोरियत में डूबी हुई थी। आदमी हर जगह तलहीन गहराइयों में गिर रहा था। कम जानने वालों की क़द्र बढ़ रही थी और सारी अमूल्य वस्तुएँ अपने अंत की ओर मुँह किए हुए थीं।
इस दरमियान वह और मैं बराबर मिलते रहे। वह सबसे कम ख़ुद पर बोलता था और सबसे अधिक विसंगतियों पर। कुछ था उसके भीतर जो और कहीं नहीं था। और शायद इस वजह ही वह प्राय: अपने निर्णय में अकेला रहा आया। एक दिन उसने कहा, ‘‘सिर्फ़ भूमिकाएँ बदल देने भर से एक कथा सुखांत हो सकती है।’’ मैंने कहा, ‘‘तुम्हें कथा पर ध्यान देना चाहिए।’’ उसने कहा, ‘‘ये सूक्ष्मताएँ तुम्हें कहीं का न छोड़ेंगी।’’
‘‘जैसे मोजिज़े नबी की पहचान होते हैं, वैसे ही एक कवि की पहचान होती है—उसकी भाषा।’’ वह कहता, ‘‘लेकिन अब कोई उस भाषा के लिए जीवन में संकट उठाना नहीं चाहता, जहाँ वह बसना चाहता है। यह यूँ है कि मैं कविताएँ तो लिखता हूँ, लेकिन इस परिचय के साथ जी नहीं सकता। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि इसका अब कुछ विशेष अर्थ नहीं है—इस वक़्त में। यद्यपि इस वक़्त के पीछे विराट काव्य-परंपराएँ हैं और कई काव्य-आंदोलनों की एक सार्थक पृष्ठभूमि भी। लेकिन यहाँ तक आते-आते कविता एक ग़ैरज़रूरी चीज़ हो गई। कुछ यूँ हुआ कि वह ख़रीद ली गई, लेकिन उसका उपयोग समझ में नहीं आया। इस क़दर उसका अवमूल्यन हुआ कि वह समाजोपयोगी नहीं रही।’’
मैं उससे बराबर कविता पर बात करता था, लेकिन वह बार-बार प्रेम और करुणा पर आ जाता था। उस वक़्त मेरी दिलचस्पी जीवन से भी ज़्यादा कविता में थी। मैं बार-बार उसे कविता पर लौटा लाता। ऐसा मैं इसलिए भी करता था, क्योंकि प्रेम पर बात करते हुए मुझे ऐसा लगता कि बराबर एक हूक उसके भीतर से उठ रही है। यह हूक उसकी आवाज में कंपन पैदा करती और आँखों में बहुत सारी नमी। बस यही वक़्त होता जब मैं कोई कविता-पंक्ति सुनाकर भाषा के बहाने उसे कविता पर ले आता। मैं उन दिनों भाषा खोज रहा था…।
वह कहता, ‘‘मैं ‘कविता में अपुनरावृत्ति की खोज’ पर रोज़ देर तक सोचता हूँ, वैसे ही जैसे ‘जीवन में परमगति की खोज’ मैं इस पर भी रोज़ देर तक सोचता हूँ। इस सोच का प्रकाशन एक दूसरी दुविधा है, लेकिन इसके लिए ख़ुद प्रयास करना आपकी प्राथमिकताओं में नहीं होना चाहिए। इस सोच के साथ मेरी कविता मुझे मेरे ‘उद्धार’ से जोड़ती है।
मैं कह नहीं सकता कि यह एक उपलब्धि है, लेकिन यह प्रक्रिया एक प्रबल सांस्कृतिक अर्थ में मुझे एक चेतना प्रदान करती है और इसलिए यह मेरे लिए एक बड़ा विषय है; यह मानते हुए भी कि कविता को विषयों से दूर रहना चाहिए, क्योंकि कविता का सर्वप्रथम विषय है—कविता होना। एक ऐसी कविता होना जिसकी एक भी पंक्ति, एक भी शब्द आततायी अपने हक़ में इस्तेमाल न कर सकें। वह मुट्ठी में जलते हुए कोयले की तरह सच हो। वह गले में हाथ डालकर चले और धोखा न दे। वह दुःख देखे और फफककर रो पड़े, लेकिन यहीं उसका काम ख़त्म न हो जाए। वह किसी राजनीति के आगे-पीछे या साथ मशाल बनकर न चले, बल्कि जब मैं अँधेरे में सीढ़ियाँ चढ़ूँ-उतरूँ तब वह क़ंदील बनकर मौजूद रहे। मेरे लिए कविता का अस्तित्व और प्रासंगिकता इसी में है।’’
मैं एक निरंतरता में उससे बहुत कुछ सीख रहा था, लेकिन जब वह गर्भ में था तब मैं उसे नहीं जानता था। जब वह कारागारों में था, जब वह ग्रामों में था, जब वह गोपियों में था… तब भी मैं उसे नहीं जानता था। जब वह कविताएँ रचने लगा, जब वह एक बहुत साधारण वेतन का तीन चौथाई पुस्तकों पर ख़र्च कर दिया करता था, जब वह प्रथम बार प्रकाशित हुआ, जब सहानुभूतियों और समानुभूतियों का समय था और पत्र-व्यवहार चलन में था… तब भी मैं उसे नहीं जानता था। और तब भी मैं उसे कहाँ जानता था, जब वह प्रेम में था और उसने अपना नाम बदलकर अपनी प्रेमिका के नाम पर रख लिया था। यह प्रेम एकदम एकतरफ़ा था और वह प्रेमिका कल्पनाओं का अनंत थी, लेकिन यह अनंत एक नाम बनकर अंत तक उससे जुड़ा रहा।
वह जब जुदा होता था तो एक उम्मीद भरी निगाह से देखकर पूछता था, ‘‘अब कब मुलाक़ात होगी…?’’
एक बार जब वह काफ़ी दिनों के बाद मिला तब हम दोनों ही काफ़ी देर तक चुप रहे। फिर मैंने ही शुरुआत करते हुए कहा कि ‘उम्मीद’ सही शब्द नहीं है। इस पर उसने कहा, ‘‘जानता हूँ, लेकिन शायद और कोई विकल्प नहीं है।’’ इस पर मैंने कहा, ‘‘और ‘शायद’ भी सही शब्द नहीं है।’’ इस पर उसने कहा, ‘‘शायद…।’’
मैंने जब उसे जाना, तब वह कई मोर्चों पर बेहद कमज़ोर हो चुका था। प्रेम करते-करते लगभग गल चुका था। उसकी कविताएँ, उसकी किताबें सब उसके साथ गल चुकी थीं। उसके परिवर्तन, उसके पत्र, उसके मित्र… जब उसने ‘प्रतिबद्धता’ की अंतिम साँस ली, सब के सब मर चुके थे।
एक साथ कई संसारों में रहते हुए, वह इतना कम बचा था इस संसार में कि अनुपस्थित मान लिया गया था। नेपथ्य की तरह था उसका जीवन कोई ‘नाटक’ करने को वह राज़ी नहीं था। इस बीच संबंध जो उसने सृजित किए, वे उसके अकेलेपन की खोज थे। सबने उसे अजनबी समझा और उसने अपने ऊपर से गुज़र जाने दिया सबका संसार। तनाव की उस अवस्था तक गया वह, जहाँ कुछ भी कर गुज़रता है आदमी और अनचाहे ही तब्दील हो जाता है सूचनाओं, संस्मरणों, ग़लतबयानियों, कहानियों और कविताओं में एक पात्र बनकर।
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कवि ऋतु कुमार ऋतु उर्फ़ रामलखन यादव की शव-यात्रा और ‘हंस’-कार्यालय में हुई ‘एक छोटी-सी शोकसभा’ के समयांतराल ने ईश्वर, जगत, जीवन, मनुष्यता, कला और कविता को लेकर मेरी दृष्टि बिल्कुल बदल दी। इस ‘बदलाव’ की चर्चा ‘आत्मचर्चा’ हो जाएगी, इसलिए इस पर फिर कभी। अभी बातें ऋतु कुमार ऋतु की सभी महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं वाली एक ‘अप्रकाशित’ पांडुलिपि की। ऋतु कुमार ऋतु के कारुणिक और असामयिक अवसान को चार महीने बाद अब लगभग चार साल हो जाएँगे। इन गए चार सालों में उनकी पांडुलिपि की बेहद दुर्दशा हुई है। यह पांडुलिपि कवि की मृत्यु के पूर्व और पश्चात् कई साहित्यिक आँखों और हाथों से गुज़र चुकी है, लेकिन अब तक अप्रकाशित है।
यहाँ प्रस्तुत प्रयास ऋतु कुमार ऋतु को याद करने का कोई उपक्रम नहीं है, यह बस एक तुलनात्मक अध्ययन भर है—उन तमाम ‘निकृष्ट’ काव्य-संकलनों के बरअक्स जो ‘कविता का प्रकाशन एक जोखिम है’ इस गढ़े गए अप्रिय तथ्य के बावस्फ़ मुसलसल प्रकाशित होते रहते हैं और चूँकि वे प्रकाशित होते रहते हैं, इसलिए उनका अपना बीस-पच्चीस सहृदयों का सुनियोजित, संतुलित, संकीर्ण, सतही और सीमित संसार भी है; जहाँ अबाध प्रशंसाएँ भी एक दुहराव में आती ही रहती हैं और ‘पठनीय और संग्रहणीय’ क़िस्म की घिनौनी पंक्तियों वाली समीक्षाएँ तथा प्रतिवर्ष प्रदान करते चले जाने की बाध्यताओं से प्रताड़ित पुरस्कार भी इस संसार में कई चाँद लगाते रहते हैं। ऐसे में इस दायरे से जो अपनी संरचना में एक ‘चक्रव्यूह’-सा है, ख़ुद को अलग रखकर केवल कवि-कर्म व कविता की शक्ति में अजस्त्र आस्था रखना, दरअस्ल; ऋतु कुमार ऋतु होना है, निष्कर्ष चाहे कितने ही दु:खद, डरावने और अप्रकाशित क्यों न हों।
अब इस पांडुलिपि के अतीत पर कुछ और वाक्य… इस पांडुलिपि की भूमिका पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखी है—लगभग आठ वर्ष पहले। दो वर्ष तक यह पांडुलिपि ‘राजकमल समूह’ के पास रही, यह समूह इसे समयाभाव (?) के कारण प्रकाशित नहीं कर सका। ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ के रवींद्र कालिया ने इस पांडुलिपि को लौटाते हुए कहा कि हम सिर्फ़ अपने लोगों को ही छापते हैं। नीलाभ के समय के ‘वाणी प्रकाशन’ ने भी शायद कुछ ऐसा ही कहा होगा, जब ऋतु की मृत्यु के बाद नीलाभ ने इसे अरुण महेश्वरी को छापने को कहा होगा। अब मैं कहाँ तक गिनाऊँ—हिंदी में प्रकाशक और ‘अपने लोग’ दोनों ही बहुत सारे हैं।
ऋतु कुमार ऋतु ने अपनी कविता की इस पहली किताब को क्रमश: आदरणीया अर्चना वर्मा जी और सर्वादरणीय सर्वश्री राजेंद्र यादव, हरिनारायण, मंगलेश डबराल, वीरेंद्र कुमार बरनवाल जैसे महानुभावों और कृष्ण मोहन झा और हेमंत कुकरेती जैसे आत्मीय मित्रों को समर्पित किया है। इस पांडुलिपि में उपस्थित कविताएँ किस मयार की हैं, यह यहाँ दी जा रहीं कुछ कविताओं के माध्यम से समझा जा सकता है और वैसे भी इन्हें एक समय के अच्छे संपादकों ने छापा है। तब फिर आख़िर और क्या अर्हताएँ हैं—एक कविता-पुस्तक को बग़ैर रुपए ख़र्च किए प्रकाशित करवाने के लिए। शायद ‘मुक्तिबोधियन मृत्यु’। कवि ने वह शर्त भी पूरी की है। लेकिन इस सबके प्रति प्रयासहीन, उदासीन, संवेदनहीन एक अरसा गुज़र जाने के बाद अब यह लगने लगा है कि हिंदी साहित्यिक समाज (जिसे पीटर वेर की एक फ़िल्म के शीर्षक का आश्रय लेकर ‘डैड पोएट्स सोसाइटी’ भी कहा जा सकता है) जीवितों के साथ क्या अपने मृतकों के साथ भी न्याय नहीं कर पा रहा है, वह इन दिनों जन्मशतियों में ‘बिजी’ है, कोई सौ साल का हो गया है, कोई डेढ़ सौ साल का और कोई दो सौ साल का, ऐसे में एक कवि के मरणोत्तर कुछ वर्षों का क्या हिसाब करे कोई; जिन्हें चाहकर भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
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ऋतु कुमार ऋतु (1970-2010) के बारे में ऊपर प्रस्तुत टिप्पणी लखनऊ से प्रकाशित हिंदी दैनिक समाचार पत्र ‘जनसंदेश टाइम्स’ के रविवारीय परिशिष्ट में 3 अप्रैल 2011 (ऋतु कुमार ऋतु की मृत्यु के क़रीब बीस महीने बाद) को प्रकाशित हुई थी। मैंने इसे लिखते हुए ‘एक अप्रकाशित पांडुलिपि पर एक वाक्य समुच्चय’ शीर्षक दिया था। इस टिप्पणी के साथ ऋतु कुमार ऋतु की कुछ कविताएँ भी थीं। इसके बाद हिंदी अकादमी, दिल्ली (जहाँ ऋतु कुमार ऋतु चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे) ने उनकी अप्रकाशित पांडुलिपि के साथ लगभग अप्राकृतिक व्यवहार करते हुए, इसे आनन-फानन में प्रकाशित कर दिया। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि ख़ुद ऋतु नहीं चाहते थे कि उनका कविता-संग्रह उनके रहते/न रहते कभी भी हिंदी अकादमी से छपे। लेकिन यह हुआ और बहुत बुरी तरह हुआ। हिंदी अकादमी ने कवि के द्वारा दिया गया कविता-संग्रह का आवरण, शीर्षक, समर्पण, उद्धरण, भूमिका, परिचय, तस्वीर सब कुछ रद्द कर दिया और कविताएँ भी ढंग से नहीं छापीं। ऋतु की अंतिम कविताएँ भी इस संग्रह में मौजूद नहीं हैं। यहाँ अंत में जो पहले भी कहीं कहा है, उसे फिर दुहरा देना ज़रूरी लगता है कि यह एक साथ व्यक्त व वर्जित होना है।
‘पाखी’ (मार्च-2013) में में पूर्व-प्रकाशित।
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ऋतु कुमार ऋतु की पाँच कविताएँ
न होगा कुछ तब
हमें मालूम है एक न एक दिन
हम सब मिल जाएँगे इसी मिट्टी में
एक न एक दिन हमें मालूम है
होगी निष्प्राण यह सृष्टि
हमें मालूम है एक न एक दिन
अपने यक़ीन पर आ जाएँगे हम सब
और किसी सबूत कि ज़रूरत नहीं होगी
(1994)
बर्बरता के उत्स
जब तमाम भले लोग
जीवन के विषय में चिंतित थे
प्रकट होने को थी कभी न कभी
कौतूहल में आदिम बर्बरता
सब कुछ नष्ट होने के भय से
जड़-चेतन में कंपन था
सब कुछ उजाड़ होना था
किसी भी समय ऊसर की तरह
कुछ नया रचने की कोशिशें
गुप-चुप प्रकट करने ही वाली थीं
कोई भव्य चमत्कार
कि ठीक उसी समय बजने लगे
शंख और डमरू
प्रारंभ हो गए
अत्याचारियों के राष्ट्रगान
हमेशा की जाने वाली
देश और आदमी को बचाने की मंत्रणाएँ
खोज रही थीं
सिर छिपाने की जगह
(2003)
यथार्थतः
जब मैं यथार्थ में जी रहा होता हूँ
मेरी आँखों में तैरते हैं
सपने क्षितिज या उड़ान के
जब मैं यथार्थ में चल रहा होता हूँ
मेरी साँसों में बैठी होती है मृत्यु
बर्फ़ की सिल्लियों-सी
जब मैं यथार्थ में सो रहा होता हूँ
मेरी देह में घुसता है एक स्पर्श
जिसकी छुअन से अपरिचित मैं अभी तक
जब मैं यथार्थ में जाग रहा होता हूँ
मुझे कफ़न में
लपेटा जा चुका होता है
(1997)
अवसाद का रंग
कहाँ हो पाता है उबरना
तुम्हारी यादों में डूबकर
अवसाद का रंग
नहीं है बारिश का पानी
जो ढल जाए
किसी भी रंग और आकार में
अवसाद का रंग
कोई नाटक नहीं है
जिसे दिखाया जाए
हर बार यवनिका बदलकर
अवसाद के रंग से उपजती नहीं
कहीं कोई गर्माहट
आता नहीं कोई मौसम
मिलता नहीं कोई संदेश
कोई आसरा थाम नहीं लेता हमें
अवसाद का रंग घुल नहीं जाता
बीते हुए कल के जल में*
वह तो प्रेमियों की आहों सदृश होता है
जिसका रंग कभी नहीं बदलता
हो नहीं जाता उसके अर्थ का विपर्यय
* कृष्ण मोहन झा की एक कविता-पंक्ति
(2001)
समाचार सार्वजानिक हो जाने के बाद
एक तुम्हें ही नहीं मालूम हो सका
कि दुनिया में नहीं है
मेरी बीमारी का कोई इलाज
बीमारी जो तुम्हारी यादों के साथ आई
और साँस-दर-साँस गहराती गई
मालूम भी कहाँ था कि
लाइलाज हो जाएगी यह एक दिन
एक दिन ख़बर मिली तो सिर्फ़ इतनी-सी
कि मेरे जाने से पहले यह बीमारी रहेगी
हर ज़हर हर नज़र से बेअसर
जीवन के अंतिम दिनों में
बस इतना ही समझ पाया मैं
कि यदि साथ दो तुम तो जिऊँगा मैं
जीतूँगा मैं
नहीं सताएगी तुम्हारी याद
और नहीं रहेगी यह बीमारी भी लाइलाज
बस इतना ही समझ पाया मैं
समाचार सार्वजानिक हो जाने के बाद
(संभवतः अंतिम कविता)