केदारविषयक

साल 2014 की गर्मियाँ थीं, जब ‘अभाव से उपलब्धि उपजी और उपलब्धि से अभाव’ (शैली साभार : लाओत्से) यानी केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ मिला।

मैंने सोचा : मुझे ‘बधाई’ से शुरू करना चाहिए, जैसे कभी-कभी कुछ प्रेमीजन अपनी प्रेमिका के तलवों से रतिक्रिया शुरू करते हैं।

ये वे दिन थे जब ‘49वाँ ज्ञानपीठ सम्मान समादृत कवि केदारनाथ सिंह को’, इस ख़बर से फ़ेसबुक के ‘भिखारियों के कटोरों का निचाट ख़ालीपन’ एक ‘अजीब-सी चमक’ से भर उठा था।

‘बधाई’ की अंतरव्याप्ति यहाँ प्रस्तुत प्रसंग में बहुत अर्थपूर्ण और गहरी थी। बधाइयों का सिलसिला देर रात तक चलता रहा था। एक कवि-लेखक ने तो सारी बधाइयों को जोड़कर कुछ यूँ प्रस्तुत किया—

बधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाईबधाई

बाद इसके उसने इसे अलग-अलग कर कई जगहों पर बाँटा, जैसे यह ‘बधाई’ नहीं मिठाई/प्रसाद हो। यहाँ यह ग़ौरतलब है कि इससे ठीक पहले इस कवि-लेखक को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी।

‘चाटना’ तब भी हिंदी की सबसे लोकप्रिय क्रिया थी, अब भी है और सौजन्य का अर्थ तब भी सहमति ही था, अब भी है।

‘पहल’ के संपादक कथाकार ज्ञानरंजन ने कहा है कि ‘हिंदी में मरण का बड़ा महात्म्य है…’ हिंदी में पुरस्कार भी सृजनात्मक रूप से रचनाकार के मरण के ही सूचक हैं और इनका महात्म्य अब हिंदी में कोई अलग से रेखांकित करने की चीज़ तो है नहीं, इसलिए मैं जब एक दौर में पुरस्कार-प्रसंगों पर प्रतिक्रियाएँ दिया करता था तो उन्हें बहुत निर्मम रखा करता था। इस निर्ममता को मैं तब और भी चरम पर ले जाकर बरतता था जब मुझे पता चलता था कि यह पुरस्कार आपका अकादमिक-साहित्यिक करियर बना सकता है, जब मुझे पता चलता था कि यह पुरस्कार साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च भारतीय पुरस्कार है, जब मुझे पता चलता था कि यह आपकी ही भाषा के किसी रचनाकार को मिला है, जब मुझे पता चलता था कि रचनाकार सवर्ण है, जब मुझे पता चलता था कि वह आपके ही प्रदेश का है, जब मुझे पता चलता था कि आप उसके छात्र/छात्रा रह चुके हैं, जब मुझे पता चलता था कि आप उसकी कविता की भद्दी नक़ल करते रहे हैं, जब मुझे पता चलता था कि वह इस उम्र में भी आपको लाभ पहुँचाने की स्थिति में है, जब मुझे पता चलता था कि उसकी प्रत्येक साँस व्यवस्था और यथास्थिति के पक्ष में है, जब मुझे पता चलता था कि उसने हमेशा से ही अपना आभामंडल सब कुछ के लिए सुपात्र के रूप में गढ़ कर रखा हुआ है या जब मुझे पता चलता था कि उसने हमेशा ही अपने से भी अधिक निकृष्ट रचनाकारों को पुरस्कृत किया है।

बहरहाल, इस अवसर पर मैंने केदारनाथ सिंह के कवि पर दस पंक्तियों का एक निबंध लिखा :

● वर्ष 1934 में जन्मे केदारनाथ सिंह ने विधिवत् काव्य-रचना 1952-53 के आस-पास शुरू की।
● उनका पहला कविता-संग्रह ‘अभी बिल्कुल अभी’ वर्ष 1960 में प्रकाशित हुआ।
● उन्हें एक साथ गाँव और शहर का कवि कहा जाता है।
● उनके काव्य-संसार में एक प्रयोजनमूलक सरलता दृश्य होती है।
● उनकी कविता कहीं भी एकालाप नहीं है।
● उनकी कविता अपने समय-समाज से एक लयपूर्ण संवाद है।
● उन्होंने अपनी कविता में कामचलाऊ शब्दों को एक मार्मिक जीवंतता दी है।
● उनके काव्य-पंथ ने हिंदी में अपने कई अनुयायी उत्पन्न किए हैं।
● उन्हें ‘अकाल में सारस’ के लिए वर्ष 1989 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
● समग्र साहित्यिक-अवदान के लिए उन्हें वर्ष 2013 का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।

‘अब लौट आओ
तुमने अपना काम पूरा कर लिया है
अगर कंधे दुख रहे हों
कोई बात नहीं
यक़ीन करो कंधों पर
कंधों के दुखने पर यक़ीन करो’

ऊपर उद्धृत पंक्तियाँ केदारनाथ सिंह द्वारा वर्ष 1977 में लिखी गई कविता ‘चट्टान को तोड़ो वह सुंदर हो जाएगी’ से हैं। इस कविता के अंत में कवि एक और नई चट्टान की खोज में अपना यक़ीन ज़ाहिर करता है। आधी सदी से भी अधिक की केदारनाथ सिंह की कविता-यात्रा कई स्मरणीय कविताओं और कविता-पंक्तियों से बुनी हुई है। मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद वह आज़ाद भारत की हिंदी में अब तक सबसे ज़्यादा बार उद्धृत किए गए कुछ हिंदी-कवियों में से एक हैं। ‘हाथ’ और ‘जाना’ जैसी लगभग चार दशक पुरानी और शब्द-संख्या के लिहाज़ से बेहद छोटी कविताएँ अब तक पुरानी नहीं पड़ी हैं, और लगभग इतनी ही पुरानी कविता ‘बनारस’ की फ़रमाइश जब तक केदारनाथ सिंह रहे, तब तक बनी रही। ‘सूर्य’, ‘रोटी’, ‘तुम आईं’, ‘बारिश’, ‘टूटा हुआ ट्रक’, ‘फ़र्क़ नहीं पड़ता’ जैसी कविताएँ केदारनाथ सिंह की कविता के मुरीदों के लिए जीवन भर की स्मृति हैं। लेकिन लोकप्रिय-प्रासंगिकता अपना मूल्य भी माँगती है और केदारनाथ सिंह इसके प्रमाण हैं। वह निर्विवाद रूप से हिंदी के एक श्रेष्ठ कवि हैं, लेकिन एक ऐसे श्रेष्ठ कवि जिनका स्वीकार्यता के बाद कभी कोई उल्लेखनीय काव्य-विकास नहीं हुआ। उनके अंतिम दो कविता-संग्रहों को इस तथ्य की तस्दीक़ के तौर पर पढ़ा जा सकता है।

गए कुछ वर्षों में साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी में प्राय: कमतर प्रतिभाओं को ही मिलते रहे हैं। हिंदी में जो सचमुच अच्छा है, उस तक किसी भी पुरस्कार की कोई रसाई नहीं है। साहित्य अकादेमी और ज्ञानपीठ भी रचनात्मक-उत्कर्ष (अगर वह कहीं है तो) के स्तर पर बहुत पहले ही चूड़ांत छू चुके रचनाकारों को उनकी सबसे कमज़ोर कृतियों और आयु के सबसे बंजर दौर में दिए जाते हैं।

इस तरह से देखें तो ज्ञानपीठ पुरस्कार ने केदार बाबू के बहुत पहले ही चुकने की पुष्टि की या यह भी कह सकते हैं कि इसने कई वर्षों से साहित्य-समीर में व्याप्त इस तरह की तमाम वाचिक सचाइयों पर ऐतिहासिक और प्रामाणिक मुहर लगा दी। इसने केदारनाथ सिंह के उस काव्यात्मक-संघर्ष को अंतिम रूप से समाप्त किया जो एक लंबे अर्से से औसत की बहुलता से ग्रस्त रहा।

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साल 2018 में 19 मार्च की शाम केदारनाथ सिंह के न रहने से हिंदी साहित्य संसार में शोक की लहर दौड़ गई। ‘एक युग का अंत’ इस रवायती मुहावरे से काम लेने का क्षण आ गया।

इस क्षण में केदारनाथ सिंह के युग पर सोचते हुए, मुझे यह बहुत स्पष्ट नज़र आया कि ‘केदार-काव्य’ मुहावरों के विरुद्ध जाते हुए मुहावरा बन जाने का काव्य है।

आधुनिक कविता में आने वालों के लिए केदारनाथ सिंह की कविता एक प्राथमिक पाठ की तरह रही है और केदारनाथ सिंह एक विद्यालय की तरह। एक उम्र पर आकर इससे आगे बढ़ना होता है, लेकिन दुर्भाग्य से हिंदी कविता में केदार-काव्य ने कुछ इस प्रकार की परंपरा का निर्माण किया है, जिसमें ड्राप-आउट्स बहुत हैं। यों प्रतीत होता है जैसे केदार-काव्य के बाद उन्होंने कुछ पढ़ा ही नहीं।

कुछ स्थूल अर्थों में कहें तो जेएनयू, डीयू, बीएचयू, एयू से पढ़ाई पूरी करने के बावजूद कविता के संसार में वे ‘पाँचवीं पाँच से तेज़’ नज़र नहीं आते। इस प्राथमिकता का एक दुखद पक्ष यह भी है कि यह छोड़ने वाले को आवारा नहीं, भक्त बनाती है; अध्यवसायी नहीं अधकचरा बनाती है।

यह इसलिए है क्योंकि केदार-काव्य का मुरीद होना आसान है, केदार-काव्य का रियाज़ आसान नहीं है और यह हो भी/ही नहीं सकता; क्योंकि उसकी सारी संभावनाएँ उसके सर्जक द्वारा सोखी जा चुकी हैं।

केदारनाथ सिंह की कविताओं की पहली किताब ‘अभी बिल्कुल अभी’ शीर्षक से 1960 में आई और दूसरी 1980 में ‘ज़मीन पक रही है’ शीर्षक से। ये बीस वर्ष केदारनाथ सिंह और हिंदी कविता दोनों के ही निर्णायक वर्ष हैं। इनमें ही हिंदी कविता का वह स्वरूप बना, जिसे आज आधुनिक या समकालीन या मुख्यधारा की कविता कहते हैं।

इन बीस वर्षों में ही आधुनिक हिंदी कविता के कुछ ज़रूरी और ग़ैरज़रूरी आंदोलन हुए और मुक्तिबोध, धूमिल, रघुवीर सहाय जैसे कवि पहचाने गए। इसके साथ ही कविता में क्या हो, क्या न हो, क्या कहा जाए, क्या न कहा जाए, कैसे कहा जाए, कैसे न कहा जाए… यह सब तय हुआ।

लेकिन हिंदी में कवि-निर्माण सारी स्थितियों में कविता से ही नहीं होता है। इसमें महानगर और पद-पुरस्कार भी उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं। केदारनाथ सिंह के बाद न किसी दूसरे कवि के जीवन में ये बीस वर्ष आए और न ही हिंदी कविता के। इस बीच केदारनाथ सिंह अपनी स्वीकृति और लोकप्रियता के दबाव में कहीं न कहीं अयोग्यताओं को प्रतिष्ठित और स्थापित करने-कराने में भी लगे रहे।

यहाँ एक व्यक्तिगत प्रसंग याद आता है। वह साल 2013 की गर्मियों की एक दुपहर थी, हिंदी के एक नए आलोचक को गए रोज़ ही हिंदी में आलोचना के लिए दिया जाने वाला एक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला था। वह आगरा से आया था और इस दुपहर उसने तय किया था कि वह केदारनाथ सिंह से मिलकर ही आगरा लौटेगा। उसके साथ हिंदी के एक और कवि-आलोचक भी थे। इन दोनों के बीच में मैं भी था।

कवि-आलोचक ने केदार-आवास की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुझसे कहा कि उनके पैर छू लेना; क्योंकि मैं छूता हूँ, वह मेरे गुरु रहे हैं—जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में।

केदारनाथ सिंह के पैर इतने नज़दीक आ गए थे कि अब स्पर्श-विमर्श की गुंजाइश बची नहीं थी। उसे किसी आगामी तात्कालिकता के लिए बचा रखना था।

यह व्यक्ति केदारनाथ सिंह से मेरी पहली मुलाक़ात थी। उन्होंने उस मुलाक़ात में लेव तोल्स्तोय और व्लादिमीर कोरेलेंको से जुड़ा एक संस्मरण सुनाते हुए कहा : एक बार की बात है, तोल्स्तोय एक साहित्यिक सभा में बैठे हुए थे। इस सभा में उनके प्रेमी, प्रशसंक, अनुयायी, शिष्य और चापलूस भरे हुए थे। उनमें से अधिकतर उनसे तब के युवा लेखक कोरेलेंको की बुराई कर रहे थे कि वह आपकी बहुत आलोचना करता है और अक्सर आपको बुरा कहता रहता है। सभा और सभा के केंद्रीय व्यक्तित्व यानी तोल्स्तोय इससे बिल्कुल अनजान थे कि कोरेलेंको भी इस सभा में कहीं पीछे बैठा यह सब सुन रहा है।

तोल्स्तोय ने कोरेलेंको की निंदा कर रहे लोगों को डपटते हुए कहा कि चुप हो जाइए आप लोग, कोरेलेंको मुझे बहुत प्रिय है और क्या तो अच्छा उपन्यास लिखा है उसने। तोल्स्तोय, कोरेलेंको के नए उपन्यास ‘द ब्लाइंड म्यूज़ीशियन’ की बात कर रहे थे।

कोरेलेंको यह सब सुनकर बहुत भावुक हो गया और सभा को चीरते हुए तोल्स्तोय के सामने आया और बोला मुझे माफ़ कीजिए आप, मैं कोरेलेंको हूँ। तोल्स्तोय ने कोरेलेंको को गले लगा लिया।

केदार जी बोले कि बाद में कोरेलेंको ने अपने एक संस्मरण में लिखा कि उस रोज़ तोल्स्तोय की बाँहों में आकर मुझे लगा कि यह संसार की सबसे सुरक्षित जगह है।

केदारनाथ सिंह की मृत्यु पर भले ही राष्ट्रीय शोक न हो रहा हो, लेकिन कविता के एक युग के वह गवाह रहे। उन्होंने हिंदी कविता के मिजाज़ को बनते-बिगड़ते-बदलते देखा। उनका क़द हिंदी कविता में तोल्स्तोय सरीखा है, यह मैं नहीं कहूँगा; मेरी इतनी हैसियत नहीं है। यह हिंदी में नामवर सिंह और विष्णु खरे की शैली और उनका शग़ल रहा। वे हर ऐरे-गैरे-ऐरी-गैरी को रवींद्रनाथ टैगोर, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और रोज़ा लुक्सेम्बर्ग जैसा बताते रहे।

लेकिन यह तो बेशक कहा जा सकता है कि केदारनाथ सिंह की कविता इस असुरक्षित संसार में उनके भक्तों के लिए संसार की सबसे सुरक्षित जगह है, जो जब तक यह संसार है; संभवतः इतनी ही सुरक्षित बनी रहेगी।